मियां मल्हार
राग -मियां मल्हार
थाट - काफी
जाति - सम्पूर्ण -षाड़व
वादी - सा
सम्वादी - प
स्वर - ग नि कोमल शेष शुद्ध
वर्जित स्वर - अवरोह में ध
न्यास के स्वर- सा रे प
समय - मध्य रात्रि
सम प्रकृतिक राग - बहार
नायकी कान्हड़ा
राग - नायकी कान्हड़ा
थाट - काफी
जाति- षाड़व -षाड़व
वादी - म
सम्वादी - सा
स्वर - ग नि कोमल शेष शुद्ध
समय - रात्रि का तृत्य प्रहर
वर्जित स्वर - ध
न्यास के स्वर - म सा
सम प्रकृतिक राग - शाहना
नायकी कान्हड़ा उत्तरांग प्रधान राग हैं इसकी प्रकृति गंभीर हैं नायकी कान्हड़ा का निर्माण विषय में यह कहा गया है कि इसका निर्माण देवगिरीके दरबारी गायक पंडित गोपाल नायक जी के द्वारा किया गया हैं सके पूर्वांग में
सुहा व उत्तरांग में सारंग का योगे बताया गया हैं परन्तु भावभट्ट ने अपने ग्रंथ अनूप विलास में इस राग को मल्हार व कान्हड़ा का योग बताया हैं
कुछ संगीतज्ञों द्वारा इसमें ध को वर्जित न करते हुए कोमल ध का प्रयोग करते है और इसे सम्पूर्ण जाती का राग मान क्र गाते हैं परन्तु यही अभी इतना प्रचार में नहीं आया हैं कुछ विद्वानों के मतानुसार यह राग कान्हड़ा, कौशिक और बागेश्री रागो से मिलकर बना हैं
नायकी कान्हड़ा उत्तरांग प्रधान राग हैं इसकी प्रकृति गंभीर हैं नायकी कान्हड़ा का निर्माण विषय में यह कहा गया है कि इसका निर्माण देवगिरीके दरबारी गायक पंडित गोपाल नायक जी के द्वारा किया गया हैं सके पूर्वांग में सुहा व उत्तरांग में सारंग का योगे बताया गया हैं परन्तु भावभट्ट ने अपने ग्रंथ अनूप विलास में इस राग को मल्हार व कान्हड़ा का योग बताया हैं
कुछ संगीतज्ञों द्वारा इसमें ध को वर्जित न करते हुए कोमल ध का प्रयोग करते है और इसे सम्पूर्ण जाती का राग मान क्र गाते हैं परन्तु यही अभी इतना प्रचार में नहीं आया हैं कुछ विद्वानों के मतानुसार यह राग कान्हड़ा, कौशिक और बागेश्री रागो से मिलकर बना हैं
पूरिया कल्याण
उतपन्न करती हैं इस राग में प स्वर अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता हैं कभी कभी इसके आरोह और अवरोह में सा लंघन कर दिया जाता हैं और स राग में रे(कोमल ) म(तीव्र ) ग की संगति देखने को मिलती हैं
राग - भूपाली
राग - भूपाली
थाट - कल्याण
जाती - औडव- औडव
वादी ग
सम्वादी - ध
स्वर - सभी शुद्ध स्वर
वर्जित स्वर - म नि
न्यास के स्वर ग प ध
समय - रात्रि का प्रथम प्रहर
सम प्रकृतिक राग - देशकार
आरोह - सा रे ग प ध सां
अवरोह - सां ध प ग रे सा
पकड़ - सा ध रे सा, ग रे ग ,प , ग ध , प , ध सां , ध रें सां l
यह पूर्वांग प्रधान राग हैं , इसका चलन मंद्र और मध्य सप्तक में अधिक पाया जाता हैं क्षीण भारतीय संगीत में इसे राग मोहनम के नाम से जाना नाता हैं इस राग में ध रे सा संगति प्रमुख हैं इसका विस्तार तार सा में अल्प ही होता हैं इसमें श्रंगार रसब प्रधान बंदिशे अति मधुर लगती हैं यदि राग के उत्तरांग में धैवत को प्रबल कर दिया जाये तो इसमें देशकार की छांया आ जाती हैं देशकार , जैत कल्याण , और शुद्ध कल्याण तीनो एक दूसरे से मिलते जुलते राग ही हैंराग-यमन
राग - बिहाग
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राग बिलवाल
राग काफी
राग मधुवंती
राग तोड़ी
राग मालकोंस
राग जयजयवंती
राग बागेश्वरी
राग -भीमपलासी
बिलासखानी तोड़ी
प्रचलित है कि गिलास खान ने तानसेन के कहने पर इस राग को गाकर कुछ समय के लिए तानसेन को जीवित कर लिया था कुछ समय पहले तक यह राग इतना प्रचलित नहीं था परन्तु आजकल यह राग बहुत ही प्रचलित राग हैं
अहीर भैरव
राग - मारू बिहाग
प्राचीन बंदिश से नहीं मिलती। इस राग का चलन तीनों सप्तक में समान रुप से होता है यह दो रागो कल्याण तथा विहाग के मिश्रण से बना है इस राग के आरोह में शुद्ध म का प्रयोग केवल सा के साथ ही किया जाता है राग में पहले ध का प्रयोग राग विहाग के समान शीघ्रता से करते हैं और बाद में कल्याण के समान पर ठहराव के साथ ध का प्रयोग करते हैं रे स्वर का प्रयोग भी उसी प्रकार से किया जाता है राग के अवरोह करते हुए म ग म ग की संगति की जाती है राग में अधिक प्रयोग में तीव्र म ही किया जाता है
राग अल्हैया बिलावल
गायन समय - दिन का प्रथम प्रहर
न्यास के स्वर - सा ग प नि
राग - शुद्ध कल्याण
राग - शुद्ध कल्याण
थाट - कल्याण
जाति - औडव - संपूर्ण
वादी - ग
संवादी -ध
स्वर - म ( तीव्र ) शेष शुद्ध
वर्जित स्वर - म नि (आरोह में)
गायन समय - रात्रि का प्रथम प्रहर
सम प्राकृतिक राग - यमन, देशकार ,भूपाली
आरोह- सा रे ग प ध नि सां
अवरोह - सां नि ध प म(तीव्र) ग रे सा
पकड़ - ग ,रे सा, नि ध प सा, ग रे प रे, सा
यह गंभीर प्रकृति का राग है इस राग का विस्तार मन्द्र और मध्य सप्तक में अधिक होता है ऐसा माना जाता है कि शुद्ध कल्याण की उत्पत्ति भूपाली और कल्याण रागो के मेल से हुई है इसीलिए कई लोग इसे भूप कल्याण कहकर भी पुकारते हैं इस राग में रे और प स्वर संगति देखने को मिलती है जो राग को विशेष रंजकता प्रदान करती है राग के आरोह में म और नि स्वरों को वर्जित किया जाता है परन्तु अवरोह में भी इनका प्रयोग अल्प ही रहता है क्योकि अवरोह में अक्सर प से ग पर आते हुए म (तीव्र) को मींड की सहायता से ही लिया जाता है इसके साथ नि का प्रयोग भी इस कारण से कम ही किया जाता है क्योंकि इससे राग कल्याण की छाया आने की आशंका रहती है तान प्रस्तुत करते हुए तो म स्वर को पूर्णतः छोड़ ही दिया जाता है जबकि नि स्वर का प्रयोग अवरोह में कुछ गायको द्वारा देखा जा सकता है ऐसा राग को भूपाली से भिन्न दिखने में सहायता होता है