तानपुरे के भाग
अलंकार
स्वरलिपि पद्धति का उद्भव और विकास
स्वर व सुर
संगीत में आरोह - अवरोह
भारतीय शास्त्रीय संगीत व उप शास्त्रीय संगीत
भारतीय शास्त्रीय संगीत व उप शास्त्रीय संगीत
भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो शैलिया हैं
1 . शास्त्रीय संगीत
2 . उप शास्त्रीय संगीत
शास्त्रीय संगीत
यदि प्रारम्भ से देखे तो हम जानेगे की संगीत की प्राचीन समय में दो धराये मार्गी व देसी संगीत के रूप में विकसित हुई | मार्गी संगीत जो देवताओ का संगीत था उस के लुप्त होने के पश्चात देसी संगीत जो निबृद्ध और अनिबृद्ध गान क रूप में हमे प्राप्त हुआ बाद में यही निबृद्ध गान शास्त्रीय संगीत के रूप में अस्तित्व में आया जो कुछ विशेष नियमो में बंधा हुआ हमे प्राप्त हुआ
शास्त्रीय संगीत में गायन इन नियमो का विशेष पालन किया जाता हैं शास्त्रीय गायन स्वर प्रधान होता हैं इसने रागो का गायन नियमो का कठोरता से पालन करते हुए करना पड़ता हैं राग की शुद्धता का विशेष ध्यान रक्खा जाता हैं मध्य कालीन युग में परिवर्तनों ने कुछ हद तक इसे भी प्रभवित किया परन्तु कुछ विशेष गुणीजनों के प्रयास के कारण यह आज हमे प्राप्त हैं शास्त्रीय संगीत में नियमो का विशेष महत्व हैं
उप शास्त्रीय संगीत
उप शास्त्रीय संगीत के अंतर्गत संगीत की वे विधाये आती हैं जिन्हे हम उप शाष्त्रीय संगीत की शैली में रखते हैं इनमे गायन को मधुर और आकर्षक बनाने क लिए गायन के कड़े नियमो को आनदेखा किया जा सकता हैं इसका प्रमुख उद्देश्य केवल चीतरंजन ही होता हैं राग गायन में विशेष नियमो का पालन करते हुए राग का गायन किया जाता हैं एक राग में अन्य राग के प्रवेश से राग का स्वरूप बिगड़ने का खतरा हो जाता हैं परन्तु उप शास्त्रीय संगीत में एक साथ कई राग भी प्रयोग कर लिए जाते हैं इन्हे हम शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत का मिला जुला रूप भी कह सकते हैं ये रचाये कई रागो के मिश्रण से भी बनाई जाती हैं इसके अंतर्गत ठुमरी, टप्पा दादरा आदि गायन विधाओं को शामिल किया जाता हैं
चैती
चैती
चैती होली के बाद चैत का महीना आरंभ होता है जब तक चैती गाई जाती है चैत के महीने को श्री राम के जन्म दिवस का महीना माना जाता हैं इसलिए इस गीत की पंक्तियों के अंत में अक्सर रामा शब्द लगाया जाता हैं भक्ति और श्रृंगार युक्त इन गीतों में भगवान रामचंद्र की लीलाओं का वर्णन रहता है इसे एक विशेष परम्परागत धुन में गाया जाता हैं पूर्व बिहार की और इसका प्रचार अधिक है इस में अधिकतर पूर्वी भाषा का प्रयोग होता है ठुमरी गायक चैती भली प्रकार से गा सकते है यह उत्तर भारत व बिहार के क्षेत्रों की सर्वधिक लोकप्रिय गायन शैली हैं इसे महिलाओँ व पुरुषो द्वारा अलग अलग समूह बना कर गायन किया जाता हैं और सभी एक समूह बना कर भी इसे गाते हैं जब इस समूह में केवल महिला या केवल पुरुष ही मिलकर गाते हैं तब इस गायन को "चैती" कहते हैं पर जब इस समुह में महिला व पुरुष दोनों होते हैं तब इसे चैता कहा जाता हैं
चंद्रकौंस
राग - चंद्रकौंस
थाट - भैरवी
जाती - औडव - औडव
वादी - म
सम्वादी - सा
स्वर - ग ध शेष शुद्ध
वर्जित स्वर - रे प
न्यास के स्वर - म सा नि
समय - रात्रि का तीसरा प्रहर
सम प्रकृतिक राग - मालकोंस
आरोह - स ग म ध नि सां
अवरोह - सां नि ध, म, ग म ग सा
पकड़ - ग म ग सा, नि, सा
यह गंभीर प्रकृति का राग हैं क्योकियह वातावरण पर तनावपूर्ण प्रभाव डालता हैं यह उत्तरांग प्रधान राग हैं यह मध्य सप्तक और तार सप्तक में अधिक खिलता हैं इसके थाट के संबंध में लोगो में मतभेद पाया जाता हैं कुछ लोग इसका थाट काफी बताते हैं इसमें नि स्वर की बहुत प्रधानता हैं शुद्ध नि की प्रबलता का यही गुण इसे मालकोंस से अलग करता हैं मलकोंस में कोमल नि को शुद्ध करने से ही इस राग की उतपत्ति हुई हैं नि की प्रबलता के कारण तानपुरे में भी मध्यम के स्थान पर नि ही मिला लिया जाता हैं
इस राग में ग को छोड़ कर बाकि सभी स्वरों पर न्यास किया जा सकता हैं चंद्रकौंस की तुलना में मालकोंस में मींड अधिक ली जाती हैं
कजरी
कजरी
कजरी एक लोकप्रिय गीत है जो उत्तर प्रदेश के पूर्वी भागों में अधिक पाया जाता है इसे कजली के नाम से भी जाना जाता है कजरी में अधिकतर वर्षा ऋतु , विरह गीत , राधा कृष्ण की लीलाओं का वर्णन देखने को मिलता है इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है कजरी को कजली नाम से भी जाना जाता है कजरी का गायन पुरुषों और महिलाओं दोनों के द्वारा किया जाता है महिलाएं जब समूह में इसे प्रस्तुत करते हैं तो उसे ढूनमुनियाॅ कजरी कहते हैं पुरुषों की कजरी अलग प्रकार की होती है उनके प्रस्तुत करने का ढंग अलग होता है कजरी का गायन सावन के महीने में त्यौहारों जैसे तीज, रक्षाबंधन आदि सावन के महीने में होता है ऐसा देखने सुनने को मिलती है जब नव विवाहिता अपने पीहर रहने को आती है और अपने भाभी और सखियों के संग झूला झूलते हुए मिलकर कजरी का गायन करती हैं
मिर्जापुर से बनारस की कजरी बहुत प्रसिद्ध है दोनों का अपना अलग-अलग रंग है कजरी का संबंध एक धार्मिक तथा सामाजिक पर्व से भी जुड़ा है भादो के कृष्ण पक्ष की तृतीया को कजरी व्रत पर्व मनाया जाता है यह स्त्रियों का मुख्य त्यौहार है इस दिन सभी स्त्रियां नए वस्त्र और आभूषण पहनकर कजरी देवी की पूजा करती है और अपने भाइयों को 'जई' बांधने को देती है कजरी गाते हुए देवी का गुणगान किया जाता हैं इस दिन वह रतजगा करके सारी रात कजरी गाती है अलग-अलग स्थनानुसार कुछ अलग मान्यताये भी होती हैं
कजरी इसे कजली भी कहा जाता है कजली गीतों में वर्षा ऋतु का वर्णन विरह वर्णन राधा कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अधिक देखने को मिलता हैकजरी का विकास एक अर्ध शास्त्रीय गायन विधा के रूप में हुआ हैं कजली के प्रकृति शूद्र है इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है मिर्जापुर और बनारस में कजली गाने का प्रचार अधिक पाया जाता है