उत्तरी और दक्षिणी ताल प्रणाली रचना, समानता और भिन्नता

               
                  भारतीय संगीत में ताल प्रणाली 
प्राचीन काल में संपूर्ण भारत में संगीत के केवल एक ही पद्धति थी किंतु आज हम देखते हैं कि संगीत की दो पद्धतियां हो गई है कुछ विद्वानों का मत है कि उत्तरी संगीत पर अरब और फारसी संगीत का प्रभाव पड़ा जिससे उत्तरी संगीत- दक्षिणी संगीत से अलग हो गया , उनका कहना है कि 11वीं शताब्दी में भारत में मुसलमानों का आना शुरू हो हुआ और धीरे-धीरे वे उत्तर भारत के शासक हो गए अतः उनकी सभ्यता और संगीत की भारत के संगीत पर अमिट छाप डाली l दक्षिण भारतीय संगीत पर कोई बाहरी प्रभाव न पड़ा, अतः वहां का संगीत अपरिवर्तित रहा इस तरह हम देखते हैं कि उत्तर और दक्षिण इन दोनों संगीत पद्धतियों का मूलाधार एक ही है नीचे दोनों पद्धतियों का तुलनात्मक विवेचन किया जा रहा है
                           समानता 
1. दोनों संगीत पद्धतियों में 12 स्वर प्रयोग किए जाते हैं इनके स्वर स्थान भी लगभग समान ही है
2. जिस प्रकार यहां थाट राग वर्गीकरण की मान्यता है उसी प्रकार दक्षिण भारत तथा कर्नाटक में भी मेल थाट- राग वर्गीकरण सर्वमान्य है मेल अर्थात थाट एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं थाट के समान मेल से भी राग  उत्पन्न माने जाते हैं
3. दोनों संगीत पद्धतियों में स्वर के साथ-साथ लय और ताल का महत्वपूर्ण स्थान है
4.  दोनों पद्धतियों के कुछ ताल भी समान है 
5. जिस प्रकार उत्तरी भारतीय संगीत में ताल देते समय विभाग की प्रथम मात्रा पर ताली अथवा खाली दी जाती है उसी प्रकार कर्नाटक संगीत में भी विभाग के प्रथम मात्रा पर ताली दी जाती है
6. दोनों पद्धतियों के कुछ राग स्वर की दृष्टि से समान है जैसे मालकौस , हिंदोलम, दुर्गा, शुद्ध सावेरी, मध्यमाद सारंग,  बिलावल, धीर संकराभरण, काफी- हरप्रिया ,भैरवी- हनुमत तोड़ी। कुछ राग नाम की दृष्टि से भी समान है किंतु स्वर की दृष्टि से नहीं जैसे श्री , सोहनी, केदार, हिंडोल आदि दूसरे शब्दों में यह नाम दोनों पद्धतियों में पाए जाते हैं  धनाश्री ,श्रीरंजनी आदि दोनों पद्धतियों में पाए जाने जाते हैं किंतु दोनों पद्धतियों में इसके स्वर भिन्न है
7. हमारे भजन, ख्याल, तराना और ठुमरी कर्नाटक के क्रमशः कीर्तनम, वर्णम,  तिल्लाना और जावली से बहुत अधिक मिलते हैं 
 8. दोनों पद्धतियों में गायक की अपनी कल्पना से गाने की पूरी स्वतंत्रता रहती है किंतु आचार - विचार का अंतर होने के कारण कल्पना करने का ढंग अलग होता है

                               भिन्नता

यद्यपि दोनों पद्धतियों में 12 स्वर होते हैं फिर भी कुछ स्वरों के नाम भिन्न है 
1. हमारा कोमल  रे और कोमल ध उनका शुद्ध रे और ध, हमारा शुद्ध रे और उनका चतुर श्रुति रे और ध, हमारा तीव्र म को प्रति म ,कोमल नि को षट श्रुति या पंच श्रुति रे कहते हैं तथा शुद्ध नि कों काकली निषाद कहते हैं सा,म,प के स्थान दोनों के समान है
2. उत्तर भारत में 10 व कर्नाटक में 19 थाट है
3. हिंदुस्तानी पद्धति में ताल देने के लिए तबला और कर्नाटक में मृदंगम होते हैं 
4. वहां की बंदिश की मौलिकता पर विशेष ध्यान दिया जाता है कोई भी गायक किसी बंदिश में परिवर्तन नहीं लाता किंतु उत्तरी भारत में कठोर बंधन नहीं है प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार गीत की बंदिश में परिवर्तन कर लेता है
5.  कर्नाटक में स्वर की कंपन और चंचलता पर व हिंदुस्तानी संगीत में स्वर की स्थिरता और गंभीरता पर विशेष बल दिया जाता है
6. कर्नाटक संगीत में यह प्राचीन नियम है कि गायक गाने के बीच मृदंग बजाने वाले को अपनी कला साधना दिखाने का अवसर देता है और वह थोड़ा समय तक शांत हो जाता है किंतु हिंदुस्तानी संगीत में ऐसा नहीं होता यहां तबला संगीत का यह अभिप्राय समझा जाता है कि संगीत से गायन अधिक सुंदर हो तबलियो को कला परिचय देने के लिए बिल्कुल अलग समय दे दिया जाता है जिन्हें स्वतंत्र वादन कहते हैं
7. कर्नाटक पद्धति में तालो के बोल नहीं होते । बोलो के स्थान पर चिन्हों का प्रयोग किया जाता है जितने चिन्ह होते हैं उतने ही विभाग होते हैं जबकि हिंदुस्तानी पद्धति में तालो के बोल होते हैं प्रत्येक विभाग की मात्राएं निर्धारित की गई है इसमें सम ,खाली और ताली के चिन्ह होते हैं
8.  इसमें इसमें खाली के स्थान में विसर्जन का प्रयोग किया जाता है इसके तीन प्रकार होते हैं पताकम, कृतम  व सर्पीनी: जबकि हिंदुस्तानी ताल पद्धति में खाली के स्थान पर खाली का ही प्रयोग किया जाता है खाली का कोई प्रकार नहीं होता
 9. कर्नाटक ताल पद्धति में ताल को प्रथम मात्रा पर जो आघात किया जाता है उसे घात कहते हैं हिंदुस्तानी ताल पद्धति में ताल की प्रथम मात्रा पर जो आघात किया जाता है
 उसे सम कहते हैं
10. कर्नाटक की ताल में जाति भेद से एक ही ताल की अनेक मात्राएं होती हैं जैसे ध्रुवताल की चतस्त्र जाति में 14 , त्रिस्त में 11, मिश्र जाति में 23 , खंड जाति में 17 तथा संकीर्ण में 29 मात्राएं होती है जबकि इसके प्रत्येक ताल में मात्राएं निर्धारित होती हैं उनकी मात्राएं किसी भी दशा में कम या अधिक नहीं होती जैसे झपताल में 10, तीनताल में 16 , एकताल में 12 मात्राएं होती है
11. कर्नाटक के तारों की संख्या सीमित है उसमें केवल सात ताल जबकि इस में  संख्या अत्यधिक होती है नए-नए तालो के निर्माण से संख्या असीमित है
12. कर्नाटक की तालो और हिंदुस्तानी तालो की मात्राओं में भी कई स्थानों पर अंतर है जैसे कर्नाटक की एक ताल 4 मात्रा की होती है तो हिंदुस्तानी 12 मात्रा की होती है


अलंकार

1. आरोह - सा, रे, ग, म, प, ध, नि, सां l
    अवरोह - सां, नि, ध, प, म, ग, रे, सा l
2. आरोह - सा सा, रे रे,  ग ग, म म, प प, ध ध, नि                                  नि,  सां सां l
     अवरोह - सां सां, नि नि, ध ध, प प, म म, ग ग,  रे            
                   रे, सा सा l
 3. आरोह - सा रे ग, रे ग म, ग म प, म प ध, प ध नि, ध                          नि सां l
      अवरोह - सां नि ध, नि ध प, ध प म, प म ग, म ग रे, 
                    ग रे सा l
4. आरोह - सा रे ग म, रे ग म प , ग म प ध ,म प ध नि ,
                    प ध नि सां l
     अवरोह - सां नि ध प ,नि ध प म ,ध प म ग ,प म ग रे ,
                    म ग रे सा l
5.  आरोह - सा ग , रे म, ग प , म ध , प नि, ध सां l
     अवरोह - सां ध , नि प, ध म , प ग , म रे , ग सा l

स्वरलिपि पद्धति का उद्भव और विकास

मानव आरंभ से ही अपने विचार , ज्ञान और अनुभवों को स्थिर रखने की क्षमता रखता है संगीत साहित्य कलाएं मानव की अमर आत्मा के उत्पादन हैं जिनके द्वारा संगीत युगों से आज तक जीवित है यदि स्वर लिपि का आविष्कार ने हुआ होता तो हजारों वर्ष पहले जो पैगंबर  महर्षि हुए उनकी ज्ञानवाणी से हमें वंचित रहना पड़ता  अतः इस प्रकार यह हमारे मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है
स्वरलिपि का अर्थ:-   लिपि केवल साहित्य की ही नहीं होती है चित्रलिपि, संगीतलिपि आदि कई लिपियां होती हैं  संगीत की स्वरलिपि में मात्रा, ताल और गीत के बोल आदि का समावेश होता है स्वरलिपि का अर्थ है किसी भी गीत अथवा गाने के बोलों को स्वर और ताल सहित लिखना आदि हम आलाप को भी लिखना चाहे तो चाहे वह तो गायन हो या वादन दोनों को स्वरों में लिख सकते हैं  उसे उस आलाप की स्वरलिपि कहेंगे
  स्वरलिपि के उत्पत्ति:-  स्वरलपि की उत्पत्ति उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है वैसे इस लिपि का हमारे देश में पाणिनि के समय में यानी ईसा से 500 वर्ष पूर्व प्रचार था जैसे हम देखते हैं प्राचीन ग्रंथों में षडज ,ऋषभ, गंधार, मध्यम के संक्षेप में सा, रे ,ग ,म दिए हैं 
  भारत की सही लिपि पूर देशों में नहीं पहुंची बल्कि अरब देशों में पहुंची. 11वीं व 12वीं शताब्दी के आरंभ में यह अधिक प्रचार में आई l आधुनिक युग में जनसाधारण का ललित कलाओं की ओर झुकाव हो गया था तब आवश्यकता अनुभव हुई  एक ऐसे विकसित साधन कि जो मानव की इस संगीत विधि की सुरक्षा कर सके इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वरलिपि बनाई गई

 संगीत में स्वरलिपि की आवश्यकता:-  संगीत मुख्यतः क्रियात्मक है और इसके क्रियात्मक रूप को बनाए रखने के लिए किसी ने किसी आधार की आवश्यकता होती है अतीत में तानसेन बैजू बावरा मानसिंह तोमर आदि ऐसे कलाकार हो चुके हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि तानसेन इतना अच्छा गाते थे कि पानी बरसने लगता था दीप जलने लगते थे और हिरन आ जाते थे किंतु आज यह केवल एक कहावत सी प्रतीत  होती है यदि प्राचीन और मध्यकालीन संगीत का कोई क्रियात्मक रूप सुरक्षित होता तो लोगों को प्राचीन और मध्यकालीन संगीत के वास्तविक रूप के बारे में पता चल जाता 
    स्वरलिपि की सहायता से एक और संगीत का क्रियात्मक रूप सुरक्षित रहता है तो दूसरी और यह संगीतज्ञ को भटकने से बचाता है गुरु परंपरा से प्राप्त विधि  को स्थाई रूप देने की इच्छा से कुछ गणमान्य संगीतज्ञ ने अपनी संगीत कला की विशेषताओं को क्रियात्मक रूप से सुरक्षित रखा ! प्राचीन समय में विद्यार्थी गुरु मुख से सुनकर विद्या ग्रहण करते थे जिनमें स्वरलिपि की इतनी आवश्यकता नहीं पड़ती थी , जब बीसवीं शताब्दी में सुविधाजनक परिस्थितियां हुई दबी हुई कला फिर से पनप उठी, लोग फिर से गुरुओं के  पास जाकर विद्या प्राप्त करने लगे परंतु कुछ ऐसे संगीत प्रेमी भी थे जो संगीत सीखना चाहते थे परंतु सुविधाजनक परिस्थितियां ना होने के कारण संगीत नहीं सीख पाते थे और प्रत्येक स्थान पर गुरु भी नहीं मिल पाते थे साथ ही जब तक गुरु की इच्छा नहीं होती थी तो वह हर एक को अपना शिष्य नहीं बनाते थे प्राचीन काल में स्वर लिपि का विकास बिल्कुल नहीं हो पाया था क्योंकि संगीत शिक्षा मौखिक रूप से दी जाती थी इसके अतिरिक्त संगीत को किसी भी प्रकार से लिपिवृद्ध नहीं किया गया इस प्रकार हम प्राचीन और मध्यकालीन संगीत से वंचित रह गए 19 वी सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के पूर्व में संगीत की बड़ी बुरी दशा थी एक और संगीत वेश्याओं के हाथ लग चुका था और दूसरी ओर रहे सहे उस्ताद जल्दी से किसी को संगीत नहीं सिखाते थे अतः संगीत साधारण लोगों से दूर होता चला गया. उस समय रेडियो यातायात के साधन भी सुगम नहीं थे न ही घर पर आसानी से सुना जा सकता था ना सीखने जाना आसान था इससे यही हानि हुई  की याद रखने वाली संख्या कम होती थी और ना ही किसी के पास संगीत का भंडार ज्यादा हो पाता था
 विस्तार एवं विकास:-  प्राचीन काल के उस्ताद अपने पुत्र या कम शिष्यों को ही अपने सामने बैठाकर सिखाते थे यदि गुरु किसी कारण अपने शिष्य से नाराज हो जाते थे तो उस शिक्षण कार्य वहीं समाप्त हो जाता था इस प्रकार शिष्यों की संख्या पूर्ण हो जाती थी पंडित विष्णु दिगंबर और पंडित भारतखंडे ने संगीत और असाधारण जनता को कि इस दूरी को दूर करने का प्रयास किया उन्होंने स्वरलिपि की आवश्यकता को समझा और स्वरलिपि का निर्माण किया यह सच है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है यदि स्वरलिपि के गायन के गले की सूक्ष्मता सुख समद्धि संभव पाना मुश्किल था परंतु इस स्वरलिपि से लाभ हुआ उसे भुलाया नहीं जा सकता कितने अचरज की बात है कि संगीतकार एक धुन की रचना करता है और वही धुन विश्व भर में प्रचलित हो जाती है इसी प्रकार दोनों का अस्तित्व वर्णो से वर्षों से चला आ रहा है यदि यह कहा जाए कि स्वरलिपि में देशकाल को जीतने की क्षमता है तो अनुचित न होगा देश में भिन्न-भिन्न स्थानों पर एक ही पाठ्यक्रम स्वरलिप द्वारा संगीत का विकास संभव हो सकता है
मनोरंजन की दृष्टि से आवश्यकता:-    आजकल मनुष्य का जीवन इतना व्यस्त है कि उसके लिए विश्राम के पल बहुत कम होते हैं इसी में उसे मनोरंजन भी करना है ऐसी अवस्था में यदि गुरु के पास जाकर संगीत सीखना पड़े तो कितना कठिन होगा और न ही ऐसा कोई गुरु होगा जो मनोरंजन मात्र के लिए शिक्षा दें ऐसे समय में कितना आसान होगा कि थोड़े समय में स्वर लिपि देखे उसका अभ्यास किया और अपना तथा दूसरों का मनोरंजन किया . आज के इस आधुनिक युग में बिना स्वरलिपि के संगीत की प्रगति के विषय में सोचना व्यर्थ की बात होगी

स्वर व सुर


संगीत में स्वर का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है  स्वर से अभिप्राय उस निश्चित ध्वनि से है जो सुनने में मधुर हो अर्थात वह ध्वनि जो सुनने में मधुर हो उसे स्वर कहते हैं स्वर ही संगीत के प्राण हैं स्वरों के अभाव में संगीत का भी कोई अस्तित्व नहीं l 
मुख्य रूप से संगीत में सात स्वर होते हैं सात सुरों की अलग-अलग ध्वनि होती है सात मधुर ध्वनिया ही सात सुर सात स्वर कहलाती है यह सात स्वर ही अलग-अलग अवस्था में विकृत और तीव्र होगा कुल 12 स्वर बनते हैं
 इन स्वरों से उत्पन्न मधुर ध्वनि को ही स्वर हैं इन 12 स्वरों में 7 शुद्ध व 5 विकृत स्वर होते हैं

1.  शुद्ध स्वर  
                संगीत में शुद्ध स्वरों की संख्या 7 होती है  सा ,रे ,ग, म ,प ,ध, नि ,सां l इन स्वरों को एक निश्चित स्थान पर गाया बजाया जाता है

 2. विकृत स्वर  
विकृत स्वर वह स्वर होते हैं 
जो अपने स्थान से थोड़ा सा  ऊपर या नीचे गाए जाते हैं अर्थात यह अपने स्थान से एक  श्रुति ऊपर या नीचे गाय बजाए जाते हैं
यह दो प्रकार के होते हैं
1. कोमल
2. तीव्र
कोमल स्वर  
                  यह वह स्वर होते हैं जो अपने स्थान से कुछ नीचे की तरफ हट कर गाए या बजाए जाते हैं इन स्वरों को दर्शाने के लिए इनके नीचे एक लेटी देखा लगाई जाती है यह स्वर चार स्वर है  रे नि
तीव्र स्वर 
               तीव्र स्वर वह स्वर होते हैं जो अपने स्थान से कुछ ऊपर की ओर विकृत अवस्था में  गा या बजाए जाते हैं सभी स्वरों में केवल (म) को ही तीव्र स्वर माना जाता है इसके ऊपर एक खड़ी रेखा लगाकर इसकी पहचान कराई जाती है जैसे - म'

संगीत में आरोह - अवरोह

संगीत में आरोह - अवरोह


¹आरोह :- स्वरों के चढ़ते हुए क्रम को आरोह कहते है  अर्थात  इसमें स्वरों की आवाज एक के बाद एक ऊंची होती चली जाती है 
जैसे - सा रे ग म प ध नि सां I
अवरोह:- स्वरों के हुए क्रम को अवरोह कहते हैं अर्थात  इसमें स्वरों की आवाज एक के बाद एक नीची होती चली जाती है 
 जैसे - सां नि ध प म ग रे सा I

भारतीय शास्त्रीय संगीत व उप शास्त्रीय संगीत


          भारतीय शास्त्रीय संगीत व उप शास्त्रीय संगीत

  भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो शैलिया हैं 

1 . शास्त्रीय संगीत  

2 . उप शास्त्रीय संगीत  

  शास्त्रीय संगीत

यदि प्रारम्भ से देखे तो हम जानेगे की संगीत की प्राचीन समय में दो धराये मार्गी व देसी संगीत के रूप में विकसित हुई | मार्गी संगीत जो देवताओ का संगीत था उस  के लुप्त होने के पश्चात देसी संगीत जो निबृद्ध और अनिबृद्ध गान क रूप में हमे प्राप्त हुआ बाद में यही निबृद्ध गान शास्त्रीय  संगीत के रूप में अस्तित्व में आया जो कुछ विशेष नियमो में बंधा हुआ हमे प्राप्त हुआ 

शास्त्रीय संगीत में गायन इन नियमो का विशेष पालन किया जाता हैं शास्त्रीय गायन स्वर प्रधान होता हैं इसने रागो का गायन नियमो का कठोरता से पालन करते हुए करना पड़ता हैं राग की शुद्धता का विशेष ध्यान रक्खा जाता हैं मध्य कालीन युग में परिवर्तनों ने कुछ हद तक इसे भी प्रभवित किया परन्तु कुछ विशेष गुणीजनों के प्रयास के कारण  यह आज हमे प्राप्त हैं शास्त्रीय संगीत में नियमो का विशेष महत्व हैं 

उप शास्त्रीय संगीत



उप शास्त्रीय संगीत के अंतर्गत संगीत की वे विधाये आती हैं जिन्हे हम उप शाष्त्रीय संगीत की शैली में रखते हैं इनमे गायन को मधुर और आकर्षक बनाने क लिए गायन के कड़े नियमो को आनदेखा किया जा सकता हैं इसका प्रमुख उद्देश्य केवल चीतरंजन ही होता हैं राग गायन में विशेष नियमो का पालन करते हुए राग का गायन किया जाता हैं एक राग में अन्य राग के प्रवेश से राग का स्वरूप बिगड़ने का खतरा हो जाता हैं परन्तु उप शास्त्रीय संगीत में एक साथ कई राग भी प्रयोग कर लिए जाते हैं इन्हे हम शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत का मिला जुला रूप भी कह सकते हैं  ये रचाये कई रागो के मिश्रण से भी बनाई जाती हैं इसके अंतर्गत ठुमरी, टप्पा  दादरा  आदि गायन विधाओं को शामिल किया जाता   हैं  



चैती

         

                 


 

       चैती

चैती होली के बाद चैत का महीना आरंभ होता है जब तक चैती गाई जाती है चैत के महीने को श्री राम के जन्म दिवस का महीना माना जाता हैं  इसलिए इस गीत की पंक्तियों के अंत में अक्सर रामा शब्द लगाया जाता हैं  भक्ति और श्रृंगार युक्त इन गीतों में भगवान रामचंद्र की लीलाओं का वर्णन रहता है इसे एक विशेष परम्परागत धुन में गाया जाता हैं पूर्व बिहार की और इसका प्रचार अधिक है इस में अधिकतर पूर्वी भाषा का प्रयोग होता है ठुमरी गायक चैती भली प्रकार से गा सकते है यह उत्तर भारत व बिहार के क्षेत्रों की सर्वधिक लोकप्रिय गायन शैली हैं इसे महिलाओँ  व पुरुषो द्वारा अलग अलग  समूह बना कर गायन किया जाता हैं और सभी एक समूह बना कर भी इसे गाते हैं जब इस समूह में केवल महिला या केवल पुरुष ही मिलकर गाते हैं तब इस गायन को "चैती" कहते हैं पर जब इस समुह में महिला व पुरुष दोनों होते हैं तब इसे चैता कहा जाता  हैं 

  







चंद्रकौंस

  


राग  - चंद्रकौंस 

थाट - भैरवी 

जाती - औडव - औडव 

वादी - म 

सम्वादी - सा  

स्वर -  शेष शुद्ध 

वर्जित स्वर - रे प 

न्यास के स्वर - म सा नि 

समय - रात्रि का तीसरा प्रहर 

सम प्रकृतिक  राग - मालकोंस 

आरोह - स नि सां   

अवरोह - सां नि , म, सा 

पकड़ - ग म सा, नि, सा 

यह गंभीर प्रकृति का राग हैं क्योकियह वातावरण पर तनावपूर्ण प्रभाव डालता हैं यह उत्तरांग प्रधान राग हैं यह मध्य सप्तक और तार सप्तक में अधिक खिलता हैं इसके थाट के संबंध में लोगो में मतभेद पाया जाता हैं  कुछ लोग इसका थाट काफी बताते हैं इसमें नि स्वर की बहुत प्रधानता हैं शुद्ध नि की प्रबलता का  यही गुण इसे मालकोंस से अलग करता हैं मलकोंस में कोमल नि को शुद्ध करने से ही इस राग की उतपत्ति  हुई हैं  नि की प्रबलता के कारण तानपुरे में भी मध्यम के स्थान पर नि ही मिला लिया जाता हैं 


इस राग में ग को छोड़ कर बाकि सभी स्वरों पर न्यास किया जा सकता हैं चंद्रकौंस की तुलना में मालकोंस में मींड अधिक ली जाती हैं  


कजरी


 कजरी 

कजरी एक लोकप्रिय गीत है जो उत्तर प्रदेश के पूर्वी भागों में अधिक पाया जाता है  इसे कजली के नाम से भी जाना जाता है कजरी में अधिकतर वर्षा ऋतु , विरह गीत , राधा कृष्ण की लीलाओं का वर्णन देखने को मिलता है इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है कजरी को कजली नाम से भी जाना जाता है कजरी का गायन पुरुषों और महिलाओं दोनों के द्वारा किया जाता है महिलाएं जब समूह में इसे प्रस्तुत करते हैं तो उसे ढूनमुनियाॅ कजरी कहते हैं पुरुषों की कजरी अलग प्रकार की होती है उनके प्रस्तुत करने का ढंग अलग होता है कजरी का गायन सावन के महीने में त्यौहारों जैसे तीज, रक्षाबंधन आदि सावन के महीने में होता है ऐसा देखने सुनने को मिलती है जब नव विवाहिता अपने पीहर रहने को आती है और अपने भाभी और सखियों के संग झूला झूलते हुए मिलकर कजरी का गायन करती हैं

           मिर्जापुर से बनारस की कजरी बहुत प्रसिद्ध है दोनों का अपना अलग-अलग रंग है कजरी का संबंध एक धार्मिक तथा सामाजिक पर्व से भी जुड़ा है भादो के कृष्ण पक्ष की तृतीया को कजरी व्रत पर्व मनाया जाता है यह स्त्रियों का मुख्य त्यौहार है इस दिन सभी स्त्रियां नए वस्त्र और आभूषण पहनकर कजरी देवी की पूजा करती है और अपने भाइयों को 'जई' बांधने को देती है कजरी गाते हुए देवी का गुणगान किया जाता हैं  इस दिन रतजगा करके सारी रात कजरी गाती है अलग-अलग स्थनानुसार कुछ अलग मान्यताये भी होती हैं 

कजरी इसे कजली भी कहा जाता है कजली गीतों में वर्षा ऋतु का वर्णन विरह वर्णन राधा कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अधिक देखने को मिलता हैकजरी का विकास एक अर्ध शास्त्रीय गायन विधा के रूप में हुआ हैं कजली के प्रकृति शूद्र है इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है मिर्जापुर और बनारस में कजली गाने का प्रचार अधिक पाया जाता है